जीतेंद्र कुमार दिल्ली विश्वविद्यालय।
इतने बड़े फ़ासीवाद विरोधी हैं ये कि इनको पूरे राज्य में बेगूसराय सीट ही चाहिए वो भी राजद के जिताऊ कैंडिडेट तनवीर हसन की कुर्बानी पर। पिछले कई चुनावों में कॉंग्रेस, राजद, जदयू सबसे अकेले गठबंधन में जाकर भी आज वामदलों को वाम एकता की नसीहत दे रहे हैं जब इनको वो एक मात्र सीट नहीं मिली। उस सीट से लड़ाना भी इन्हें वही एक कैंडिडेट है जिसके बारे में यह धारणा आम है कि एक समय मे बिहार में मजबूत रहे कम्युनिस्टों को भूमिहारों ने बर्बाद कर दिया। लोकतंत्र के प्रति इनकी प्रतिबद्धता देखिए कि कह रहे हैं फ़ासीवाद के खिलाफ़ लड़ाई में वामदलों को न लेने से नुकसान होगा। मतलब इस नुकसान को वो नहीं रोकना चाहेंगे अगर बेगूसराय इन्हें दी जाती है। राष्ट्रीय मीडिया द्वारा बनाए जिस नेता को वामपंथ का ये पर्याय बनाए हैं अगर वो राष्ट्रीय ही है तो बेगूसराय का ही क्यों बेरसराय की कमान क्यों नहीं दे देते! इंदिरा इज इंडिया नहीं चला। मोदी देश है नहीं चलेगा तो फिर कन्हैया ही वामपंथ भी नहीं चलेगा। लोकतंत्र को तो जो आप नुकसान करेंगे कर लीजिये| लेकिन वामपंथ को भी कम नुकसान नहीं पहुंचा रहे आप। अगर आप फ़ासीवाद को बेहतर समझते हैं तो ज्यादा समझदार होने की जिम्मेवारियां भी आपको उठानी ही पड़ेगी अन्यथा फ़ासीवाद के ख़तरे भी ज्यादा वामपंथ को ही है। अभी एक कन्हैया के लिए पूरा वामपंथ और वामपंथी विचारधारा को मत झोंकिये। बिहार में कम्युनिस्टों के अभी भी जो गढ़ हैं उसमें सीपीआई वैसे भी कहीं नहीं है वोटों के पैमाने पर। बेगूसराय में जो थोड़ा बहुत आपको उम्मीद है वो सीपीआई और भूमिहार वोटों को जोड़ने के बाद बनती है। सीपीआई और सी.पी.एम. दोनों यहां न शुद्ध रूप से वामपंथी वोटों के आधार पर किसी को हरा भी नहीं सकती, जीताना तो दूर की बात है दूसरे तिकडमों को छोड़ दिया जाय तो। एकमात्र सीपीआई एमएल ही है जो जमीनी आंदोलनों से जुड़ी है और आरा सिवान दो सीटों में यह क्षमता रखती है। इनमे से अगर एक सीट राजद दे रही है तो उतना बुरा नहीं कह सकते। हाँ सिवान का सीट देना ज्यादा न्यायसंगत और बाइज्जत होता। लेकिन फिर कह रहा हूँ कि राजद पर क्रांतिकारी जिम्मेदारियां नहीं आप पर हैं। प्रतिनिधियों की सुनिश्चित करने की उनकी समझदारी जरूर है जिसमे किसी भूमिहार के लिए अपने जुझारू और जिताऊ मुसलमान कैंडिडेट को कुर्बान नहीं करना कहीं से भी ग़लत नहीं कहा जा सकता। और हां क्या राजद नेतृत्व तक यह बात नहीं गई होगी कि इसी राष्ट्रीय नेता ने अपनी पार्टी में दलितों-पिछड़ों के लिए क्या किया है! सजातीय भाजपाई भोला सिंह के लिए ये नहीं झिझकते लेकिन 13 पॉइंट रोस्टर और 10% सवर्ण आरक्षण पर एक शब्द नहीं फूटते। इसलिए कन्हैया को वामपंथ का पर्याय बनाना बंद कीजिए और फ़ासीवाद के खतरों की गंभीरता समझते हुए खुद को बचाने के लिए आगे आइए।

जीतेंद्र कुमार दिल्ली विश्वविद्यालय में फारसी साहित्य में M.Phil कर रहे हैंं और हिंदुस्तानी राजनीति पर गहरी नज़र रखते हैं.
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