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इमामुद्दीन अलीग ।

बुनियादी सवाल यह है कि चेतना (शऊर) और भावुकता (जज़बतियत) में अंतर किया है? यह कैसे पता चलेगा कि फलां फैसला, रवैया, या विचार भावुकता की उपज है और फलां चेतना का सबूत है? सवाल बहुत महत्वपूर्ण है और इसका जवाब ठीक से समझे बिना इस विषय पर एक कदम भी आगे नहीं बढ़ा जा सकता, वरना राजनीतिक चेतना को समझने की हमारी यह कोशिश ही भावुकता का शिकार हो जाएगी।

दरअसल किसी भी विषय के आधार (बुनियाद) को जाने-समझे बिना ही लिया गया कोई भी फैसला भावुक फैसला कहलाता है… भावुकता या किसी जज़्बाती फैसले के लिए कई आधार हो सकते हैं, जैसे किसी विषय के आंशिक पहलू पर आधारित फैसला, हवा या लहर के बहाव में लिया गया फैसला, जनता की मांग और प्रचलित सोच के असर में लिया गया फैसला आदि। लेकिन इस विषय की सब से मोटी और बुनियादी बात यह है कि हर वो विचारधारा, फैसला और रवैया जज़बती माना जाएगा जिसमें विषय की बेसिक बातों का ख्याल न रखा गया हो।
 
बात चूंकि राजनीतिक चेतना की हो रही है, इसलिए ज़रूरी है कि कुछ राजनीतिक उदहारण पेश किए जाएं। मुसलमानों में भाजपा को हराने के लिए वोटिंग का रुझान और अपने नेतृत्व का विरोध इसकी बेहतरीन मिसाल हैं। चूँकि यह दोनों ही स्टैंड राजनीतिक फैसले/राय होने के बावजूद इनमें देश की सियासत के बुनियादी पहलू को यकसर नज़र अंदाज़ कर दिया गया। इस सोच के हामिल लोग अपने स्टैंड के पक्ष में अपनी क़यादत के ‘साइड इफ़ेक्ट’ को दलील के तौर पर पेश करते हैं। उनका दावा है कि अपनी क़यादत खड़ी करने से बहुसंख्यकों का बीजेपी के पक्ष में धुर्वीकरण होगा। हालांकि, राजनीतिक फैसला करते समय ‘साइड इफ़ेक्ट’ को विषय के आधार को नज़र अंदाज़ करने का औचित्य नहीं बनया जा सकता। हाँ, साइड इफ़ेक्ट से बचने या उसे कम करने के उपायों पर चिंतन मनन ज़रूर किया जा सकता। जैसे अपनी क़यादत खड़ी करने के लिए कई ऐसे तरीके हो सकते हैं जिससे कथित साइड इफेक्ट से बचा जा सकता है। मिसाल के तौर पर अगर राज्य स्तर पर अपनी सियासी क़यादत खड़ी की जाए तो राष्ट्रीय स्तर पर इसका साइड इफ़ेक्ट कम पड़ेगा, इस कड़ी में कई राज्यों में हुए तजुर्बात हमारे काम आ सकते हैं। इसके अलावा एक उपाय यह भी हो सकता है कि अपनी क़यादत वाली पार्टियों पर दबाव बनाया जाए कि सद्भाव और इंक्लूसिव पॉलिटिक्स को अपनी नीतियों का हिस्सा बनाएं। इस तरह के और भी कई उपाय हो सकते हैं जिनपर विचार किया जा सकता है लेकिन विषय की बुनियाद को किसी भी तौर पर नज़र अंदाज़ नहीं किया जा सकता… अगर बुनियाद को नज़र अंदाज़ करके कोई फैसला किया गया गई तो वह पूर्ण रूप से जज़्बाती और आधारहीन फैसला होगा, चाहे उसके लिए कोई भी वजह या बहाना क्यों न पेश किया जाए।
 
लोकतंत्र गिनती का खेल है मगर गिनती नेतृत्व के अधीन होती है, इस खेल में भाषण बाज़ी का कोई मोल नहीं। यह गिनती ही इस विषय का आधार है। अगर हम कोई राजनीतिक फैसला कर रहे हैं तो किसी भी तौर पर विषय के इस बुनियादी पहलू को नज़र अंदाज़ नहीं कर सकते। लोकतान्त्रिक देश में गिनती के मंत्र और उसके महत्व की समझ से ही राजनीतिक चेतना विकसित होती है। लेकिन देश के मुस्लिम बुद्धिजीवी वर्ग और संगठनों ने हमेशा ही गिनती के महत्व को नज़रंदाज़ करके भाषणबाज़ी और हवा के बहाव में फैसले किए जिससे आम मुसलमान भावुकता (जज़्बातियत) के शिकार हो गए, उनकी राजनीतिक चेतना बिलकुल भी विकसित नहीं हो पाई । हाल का ताज़ा उदाहरण मुस्लिम बुद्धिजीवियों के बीच कन्हैया के समर्थन की मची होड़ है… इस फैसले में भी ये बुद्धिजीवी गिनती के महत्व को नज़र अंदाज़ करके, लच्छेदार भाषणबाज़ी में बह गए जिसका लोकतंत्र में कोई महत्व नहीं। हिंदुस्तान के मुसलमानों और उनके बुद्धिजीवियों के लिए ज़रूरी है वो लोकतंत्र की बुनियाद को नज़र में रख कर कम्युनिटी के अंदर राजनीतिक चेतना पैदा करें और अपने नेतृत्व को मज़बूत करने के साथ-साथ पार्लियामेंट और असेंबलियों में अपनी गिनती बढ़ाएं।
(यह लेखक के निजी विचार हैं, “जदीद न्यूज़” का उनके विचारों से सहमत होना ज़रूरी नहीं है.) 

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