मोहम्मद अय्यूब घोसी


 

ए लोगों जो ईमान लाए हो! तुम पर रोज़े अनिवार्य कर दिए गए, जिस तरह तुमसे पहले नबियों के अनुयायियों पर अनिवार्य किए गए थे। इससे आशा है कि तुममें ताक़्वा,परहेज़गारी (ईश-भय, संयम) का गुण पैदा होगा। (कुरआन-2 “अल बकरा”-183)

रोज़े का मक़सद ज़िन्दगी में तक़वा-परहेज़गारी पैदा करना है।
मोहम्मद अय्यूब घोसी

ए ईमान वालों तुम पर रोज़ा फर्ज़ किया गया जिस तरह तुमसे पहले (उम्मत) के लोगों पर फर्ज़ किया गया था इस उम्मीद-आशा पर कि तुम (रोज़े की बदौलत धीरे-धीरे) परहेज़गार बन जाओ क्योंकि रोज़ा रखने से आदत पड़ेगी नफ़्स को गुनाहों और नाफरमानी के कई तकाज़ो से रोकने की और इसी आदत की पुख़्तगी बुनियाद है तक़्वा (परहेज़गारी, ईश-भय, संयम की)

   तक़्वे (परहेज़गारी) हासिल करने में रोज़ो का बड़ा दखल है क्योंकि रोज़ो से अपनी इच्छाओं को काबू में रखने की एक खूबी और कमाल पैदा होता है।

   नमाज़ के बाद दूसरी इबादत जो अल्लाह तआला ने मुसलमानों पर फर्ज़ की है। ‘‘रोज़ा‘‘ है, रोज़ा से मुराद यह है कि सुबह से शाम तक आदमी खाने पीने और जिस्मानी ताल्लुक़ात से परहेज़ करे। नमाज की तरह यह इबादत भी शुरू से तमाम पैगम्बरों की शरीअत में फर्ज रही है। पिछली जितनी उम्मतें गुज़री है सब इसी तरह रोज़ा रखती थीं, जिस तरह उम्मतें मुहम्मदी रोज़ा रखती है।

गौर कीजिए कि आख़िर रोज़े में क्या बात है, जिसकी वजह से अल्लाह तआला ने इस इबादत को हर ज़माने में फर्ज किया है।

   इस्लाम का असल मक़्सद इन्सान की पूरी ज़िन्दगी अल्लाह की इबादत बना देना है। इन्सान ‘अब्द’ यानी बन्दा पैदा हुआ है और ‘अब्दियत’ यानी बन्दगी उसकी फितरत में दाखिल है, इसलिए इबादत यानी ख़्याल और अमल में अल्लाह की बन्दगी करने से कभी एक क्षण के लिए भी उसको आज़ाद नही होना चाहिए। उसे अपनी ज़िन्दगी के हर मामले में हमेशा और हर वक्त यह देखना चाहिए कि अल्लाह तआला की रज़ा और खुशनूदी किस चीज़ में है और उसका गज़ब और नाराज़गी किस चीज़ में, फिर जिस चीज़ और जिस अमल में अल्लाह की खुशी हो वह काम करना चाहिए और जिस अमल मैं उसका गज़ब और उसकी नाराज़गी हो उससे इस तरह बचना चाहिए जिस तरह आग से कोई बचता है। जो तरीका अल्लाह ने पसन्द किया हो उस पर चलना चाहिए ओर जिस तरीक़े को उसने ना पसंद किया हो उससे भागना चाहिए। जब इन्सान की सारी ज़िन्दगी इस रंग में रंग जाए तब समझो उसने अपने मालिक की बन्दगी का हक़ अदा किया । कुरआन में है – ‘‘मैने जिन्नों और इन्सानों को पैदा इसलिए किया है कि वे मेरी बन्दगी करें।’’

   नमाज़, रोज़ा, ज़कात और हज के नाम से जो इबादतें हम पर फर्ज़ की गई हैं उनका असली मक़्सद भी उसी बड़ी इबादत के लिए हमको तैयार करना है। उनको फर्ज़ करने का मतलब यह नहीं है कि अगर तुमने दिन में पाँच वक्त रूकूअ और सजदा कर लिया और रमज़ान में तीस दिन तक सुबह शाम तक भूख-प्यास बर्दाश्त कर ली और मालदार होने की सूरत में सालाना ज़कात और जिन्दगी में एक बार हज अदा कर लिया, तो अल्लाह का जो कुछ हक़ तुम पर था, वह अदा हो गया और इसके बाद तुम उसकी बन्दगी से आज़ाद हो गए कि जो चाहे करते फिरों, बल्कि असल में इन इबादतों को फर्ज़ करने की गरज़ यही है कि उनके ज़रीये से आदमी की तरबियत (ट्रेनिंग) की जाए और उसको इस क़ाबिल बनाया जाए कि उसकी पूरी ज़िन्दगी रब की इबादत बन जाये।

    आइये! अब इसी मक़्सद को सामने रखकर हम देखें कि रोज़ा किस तरह इंसान को उस बड़ी इबादत के लिए तैयार करता है।

    रोज़े के सिवा दूसरी जितनी इबादतें है वे दिखती है जैसे नमाज में आदमी उठता-बैठता और रूकूअ़ सज़्दा करता है। ज़कात लेने वाले को मालूम होती है। हज में वह लम्बा सफर करता है। इसके बरखिलाफ रोज़ा एसी इबादत है जिसका हाल रब और बन्दे के सिवा किसी को नहीं मालूम होता है सख़्त गर्मी में भी जो इन्सान रोज़ा रखता है वह चोरी छिपे भी कुछ नहीं खाता पीता जबकि आंखों में दम आ रहा हो, कोई चीज़ खाने पीने का इरादा तक नहीं करता, उसे अल्लाह तआला के आलिमुलगैब होने पर कितना ईमान है? किस क़द्र ज़बरदस्त यकीन के साथ वह जानता है कि उसकी हरकत चाहे सारी दुनिया से छिप जाए, मगर अल्लाह से नहीं छिप सकती अल्लाह का कैसा खौफ उसके दिल में है बड़ी से बड़ी तकलीफ उठाता है सिर्फ अल्लाह के खौफ की वजह से कोई ऐसा काम नहीं करता जो उसके रोज़े को तोड़ने वाला हो। कितना मज़बूत यकीन है उसको आख़िरत (मरने के बाद की ज़िन्दगी) में इनाम व सज़ा पर महीने भर में वह कम से कम तीन सौ साठ घण्टे के रोज़े रखता है पर कभी एक मिनट के लिए भी उसके दिल में आखिरत के बारे में कोई शक का शायबा तक नहीं आता।

    इस तरह अल्लाह तआला हर साल पूरे एक महीने तक मुसलमान के ईमान को लगातार आज़माइश में डालता है इस आज़माइश में जितना-जितना इंसान पूरा उतरता है, उतना ही उसका ईमान मज़बूत होता जाता है यह आज़माईश की आज़माईश है और ट्रेनिंग की ट्रेनिंग।

    यह तक़्वे की ट्रेनिंग इसलिए दी गई थी कि बाकि के ग्यारह महिनों में भी ज़िन्दगी भर के हर काम में इंसान अल्लाह से वैसा ही डरने वाला हो जैसा रमज़ान में था। आज इसके खिलाफ हमारी इबादतें क्यों बेअसर हो गई? हमारी सबसे बड़ी गलती यही है कि हमनें नमाज़ रोज़ो के अरक़ान को ही असल इबादत समझ रखा है इबादत के लिए सोचने का ढंग बिल्कुल बदल गया है सिर्फ सुबह से शाम तक कुछ न खाने पीने का नाम ईबादत है। इबादत की असली रूह जो हमारे हर अमल में होनी चाहिए, इससे आमतौर पर आज 99 प्रतिशत आदमी ग़ाफिल है इसी वजह से सालों से रोज़े रख रहे है पर ये इबादतें अपने पूरे फायदे नहीं दिखाती क्योंकि इस्लाम में नीयत और फहम और समझ बूझ ही पर सब कुछ मुनहसिर है हर काम जो इन्सान करता है उसमें दो चीज़े ज़रूर ही हुआ करती है। एक चीज़ तो मक्सद है जिसके लिए काम किया जाता है और दुसरी चीज़ उस काम की वह शक्ल है जो इस मक्सद को हासिल करने के लिए इख़्तियार की जाती है।

    रोज़ो को रखवाने का मक़्सद था तक़्वा, इन्सान में परहेज़गारी का गुण पैदा हो जिन्दगी में हर वक्त हर काम में बुराई से रूकने का गुनाहों से बचने का और नाफरमानी के कामों से दूर रहने का गुण पैदा हो जाना चाहिए था क्योंकि हम सालों से रोज़े रखते चले आ रहे है। क्योंकि जो अल्लाह रोज़े की हालत में हमारे छिप कर खाने पीने को देखता है वो ही अल्लाह हमारी ग्यारह महिने की ज़िन्दगी के हर काम को भी देख रहा है हमारी शादी की तकरीब और उसमें रस्में हल्दी के नाम पर औरतों का सज संवर कर एक-एक गैर मर्द को दिखाना मेक-अप के नाम पर जो है इसे छुपाना और जो नहीं है उसे दिखाकर धोखा देना क़ुरआन में आयत है कि मर्द अपनी नज़रों को नीचा रखें, औरत अपनी नज़र को नीची रखें इसके खिलाफ मर्द औरतें सब की नज़रों में खुद दिखाना और खुद भी सबको देखना आम कर रखा है। और डी. जे. बजवाना जिससे उसके पड़ौसी, बुज़ुर्गों और स्टुंडेन्टों का जीना दूश्वार कर दिया जाता है जबकि पैगम्बर सल्लल्लाहू अलैही वसल्लम ने पड़ौसी को अपने शर (बुराई) से महफुज़ रखने की ताक़ीद शिक्षा दी है तक़्वा (परहेज़गारी) का तक़ाज़ा है कि हल्दी की रस्म और डी. जे. का आयोजन नहीं करना और अगर कोई नया नया पैसे वाला बना हो और वो कमज़र्फ रूपयों का प्रदर्शन करता हो तो उसकी रस्में हल्दी डी. जे. के आयोजन में नहीं जाकर अपने तक़्वा परहेज़गारी होने का सबूत देना चाहिए। आज डी. जे. लगवाना, नाचना, सजना-संवरना और कपड़े ज़ेवरात मेक-अप करके दिखाना और हर बुराई से हमारे तुच्छ अरमान पूरे होते है, जबकि हमारे अरमान अल्लाह को हुक्मों को पूरा करने और नबी करीम सल्लल्लाहो अलैह व सल्लम के तरीकों पर चलने पर होना चाहिए। अरबपति सहाबा का अमल यह था कि चिमनी की लौ कम करवा देते थे ताकि तेल कम खर्च हो और हम आज लाखों रूपयें लाईट डेकोरेशन पर खर्च करके देश की उर्जा और अल्लाह का दिया हुआ रूपया फिजुल खर्ची में बरबाद कर देते है और तक़्वा के खिलाफ काम करते है और अल्लाह की नाफरमानी करके उसको नाराज़ करते है, और रसूल सल्ल0 के तरीकों के खिलाफ अमल करके उनकी शिफाअ़त से महरूम होते है। वाहियात गानों पर लड़के और लड़कियों का नाचना हर बुराई को खुले आम करने के बाद निकाह को सादगी से कर के ये समझतें है की शरीअत से शादी की है, मौत मैयत के मामले में भी सब करना और फिर ये समझना की हम तक़्वा-परहेज़गार है। झूठ बोलना, शराब पीना, ज़िना खोरी करना, जुआ और सट्टा खेलना, ब्याज का कारोबार करना, लोगों का माल नाजायाज़ तरीके से खाना, क़ता तअ़ल्लुक करना गाली गलौच करना, हर बुराई को खुले आम करना और साथ में नमाज़ पढ़ना, रोज़ा रखना, हज उमरा करना, और दीन की बात करना इस खलत मलत ने आज मुसलमानों की दूदर्शा की है। इसमें के लोग इस्लाम की बात करने में सब को हरा देते है। तक़्वा के लिए रोज़ा रखवाया जा रहा है। ये सिर्फ रोज़ा रखते है तक़्वा परहेज़गारी पैदा हो उस पर ध्यान नहीं देते है।

    “रमज़ान वह महिना है जिसमें कुरआन उतारा गया, जो इंसानों के लिए सर्वथा मार्गदर्शन है और एसी स्पष्ट शिक्षाओं पर आधारित है जो सीधा रास्ता दिखाने वाली और सत्य-असत्य का अन्तर खोल कर रख देने वाली है। इसलिए अब से जो आदमी इस महिने को पाए, उस पर अनिवार्य है कि इस पूरे महिने के रोज़े रखें। और जो कोई बीमार हो, तो वह दुसरे दिनों में रोज़ों की तादाद पुरी कर लें। अल्लाह तुम्हारे साथ नर्मी करना चाहता है, सख्ती करना नहीं चाहता। इसलिए यह तरीक़ा तुम्हें बताया जा रहा है ताकि तुम रोजों की तादाद पुरी कर सको और जो मार्गदर्शन अल्लाह ने तुम्हें प्रदान किया है उस पर अल्लाह की किब्रियाई (बढ़ाई) को प्रदर्शित और अंगीकार करो और शुक्रगुज़ार बनों।’’

(कुरआन-2 ‘अल बकरा’-185)

अर्थात् जो लोग रमज़ान में किसी शरई मजबुरी के कारण रोज़े न रख सकें, उनके लिए अल्लाह ने दुसरे दिनों में उसकी कज़ा कर लेने का रास्ता भी खोल दिया है, ताकि कुरआन की जो नेमत उसने तुमको दी है, उसका शुक्र अदा करने के बहुमुल्य अवसर से तुम वंचित न रह जाओ।

    यहाँ यह बात समझ लेनी चाहिये कि रमज़ान के रोज़ो को केवल इबादत और केवल तक़्वा ईशपरायणता की ट्रेनिंग ही नहीं कहा गया, बल्कि इन्हें इससे आगे बढ़कर मार्गदर्शन की उस महान नेमत पर अल्लाह के प्रति कृतज्ञता दर्शाना भी ठहराया गया है, जो कुरआन की शक्ल में उसने हमें प्रदान की है। सच तो यह है कि एक बुद्धिमान व्यक्ति के लिए किसी नेमत के प्रति कृतज्ञता प्रकट करने की सबसे अच्छी शक्ल अगर कोई हो सकती है तो वह केवल यही है कि वह अपने आप को उस उद्देश्य की प्राप्ति के लिए ज़्यादा से ज़्यादा तैयार करें जिसके लिए देने वाले ने वह नेमत प्रदान की है। कुरआन हमको इसलिए प्रदान किया गया है कि हम अल्लाह की प्रसन्नता का रास्ता जानकर खुद उस पर चलें और दुनिया की उम्मत को उस पर चलाएं। इस उद्देश्य के लिए हमको तैयार करने का बेहतरीन तरीका रोज़ा है इसलिए कुरआन के उतरने के महिने में हमारी रोज़ेदारी सिर्फ इबादत ही नहीं और सिर्फ नैतिक प्रशिक्षण भी नहीं है, बल्कि उसके साथ स्वंय कुरआन की इस नेमत की भी सही और उचित कृतज्ञता प्रकट करनी है।

मोहम्मद अय्यूब घोसी एक अच्छे लेखक और भूपाल में समाजी कारकुन हैं जो भारतीय मुस्लिम और ख़ासकर घोसी समाज के वेलफेयर के लिए हमेशा सक्रिय रहते हैं।

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